- छत्तीसगढ़ में कल बीते एक दिन की खबरें दिल दहलाने वाली है। सरकार और समाज को कुछ देर साथ बैठकर इस बारे में सोचना चाहिए कि प्रदेश किधर जा रहा है। एक दर्जन से अधिक हिंसक जुर्म ऐसे हुए हैं जिनमें मुजरिम अकेले नाबालिग पाए गए हैं, या बालिग लोगों के साथ में जुर्म में शामिल थे। ये दोनों ही बातें अलग-अलग तरह से खतरनाक इसलिए हैं कि नाबालिग खुद होकर भी अब हत्या, बलात्कार, और लूट जैसी घटनाओं को कर रहे हैं, बल्कि ऐसे जुर्म में बालिग और नाबालिग के बीच कोई सीमारेखा भी नहीं रह गई है।
- अभी दो दिन में ही सरगुजा के बाल सुधार गृह में वहां के कर्मचारियों की आंखों में मिर्च का पाउडर झोंककर वहां रखे गए आधा दर्जन लड़के भाग निकले हैं। यह भी याद रखने की जरूरत है कि अभी कुछ बरस पहले ही दुर्ग के बाल सुधारगृह में हंगामा कर रहे नाबालिग लड़कों को जब काबू में करने की कोशिश की गई तो वे गैस सिलेंडर लेकर छत पर चढ़ गए थे, और पकड़ने वाले लोगों पर वह सिलेंडर फेंकने पर आमादा थे। दो दिन पहले ही बालोद में बाराती बनकर गए लड़कों के ग्रुप में से किसी एक का मोबाइल गुम गया, जिस लड़के को मोबाइल मिला उसने 500 रुपए वसूलकर मोबाइल लौटाया, उसी बीच उनमें बहस हो गई। 8 लड़कों ने मोबाइल लौटाने वाले लड़के को चाकू से गोदकर मार डाला, उनमें से 5 नाबालिग हैं। राज्य में बहुत से ऐसे बलात्कार और सामूहिक बलात्कार हुए हैं जिनमें नाबालिग लड़के पकड़ाए हैं। दूसरी तरफ रात में शहरी बगीचों में और रेलवे स्टेशनों के आसपास नाबालिग लड़कियों को सज-धजकर लोगों को लुभाते देखा जा सकता है। लड़कियां किसी हिंसक जुर्म में अभी हमलावर तो नहीं मिली हैं, लेकिन वे एक अलग किस्म से धंधे में फंस गई हैं।
- अब सवाल यह उठता है कि जिस उम्र में घरों में पलने वाले अधिकांश बच्चों से स्कूल के आखिरी इम्तिहानों की तैयारी की उम्मीद की जाती है, कॉलेजों में दाखिले के लिए कोशिश करने की उम्मीद की जाती है, या गरीब परिवारों में भी घर चलाने के लिए मां-बाप मदद की राह देखते हैं, उस उम्र में अनगिनत बच्चे पहले तो किसी जुर्म का शिकार होते हैं, और फिर खुद मुजरिम बन जाते हैं। किशोरावस्था के अपराध किस दिन बालिग बनने पर उन्हें पक्का मुजरिम बना देते हैं वह उन्हें खुद भी नहीं पता होता, उनके 18वें जन्मदिन पर कोई केक तो कटता नहीं है।
- इस सिलसिले की शुरुआत हम रेलवे स्टेशनों पर देख सकते हैं, जहां प्लेटफार्म पर बेघर-बेपरिवार बच्चे किसी तरह से चार पैसे कमाने, या मांग लेने की कोशिश करते रहते हैं। यहीं से उनका नशा शुरू हो जाता है जो कि पंक्चर सॉल्यूशन की ट्यूब की शक्ल में उन्हें हर मोहल्ले में किसी न किसी दुकान पर हासिल रहता है। कुछ बच्चे मेहनत करके कमाने की भी कोशिश करते हैं, वे सड़क किनारे कचरे में से, या घूरों पर से प्लास्टिक, कागज, या किसी और किस्म का चुनिंदा कचरा बोरों में उठाते चलते हैं, ऐसे बहुत से बच्चे अपने कद से अधिक बड़े बोरे भी ढोते-घसीटते चलते हैं, लेकिन बिना किसी प्रेरणा, बिना किसी महत्वाकांक्षा की यह जिंदगी कब फुटपाथ पर उन्हें नशे की तरफ धकेल देती है, इसका पता किसी को नहीं चलता।
- इन बच्चों से कुछ अधिक खुशनसीब वे बच्चे होते हैं जिन्हें रहने के लिए परिवार की छत नसीब होती है, दो वक्त का खाना मिलता है, लेकिन उनकी पढ़ाई गरीब और कामकाजी मां-बाप की अनदेखी से, या किसी और वजह से छूट चुकी रहती है। भारत का बाल मजदूरी कानून, स्कूल न जा रहे बच्चों के किसी भी रोजगार की संभावना के खिलाफ है। कानून अपने आप में जायज है, लेकिन इसके पास गरीब घरों के स्कूल छोड़ चुके बच्चों के लिए कोई समाधान या राह नहीं है। सरकार अगर जिम्मेदार रहती है तो वह बाल मजदूरों की मजदूरी छुड़ाकर काम देने वाले पर कार्रवाई करती है, लेकिन काम छुड़ा दिए गए ये बच्चे क्या करें, इस बारे में सरकार के पास कुछ भी नहीं है। स्कूल बरसों पहले छूट गई है, बालिग मजदूरी या रोजगार मिलने में बरसों बाकी है, गरीब मां-बाप के पास इस उम्र के बच्चों को देने को कुछ नहीं है, तो वे चोरी-छुपे कहीं नौकरी ढूंढते हैं, और उसके भी न मिलने पर आवारागर्दी और जुर्म उनके पास अकेला विकल्प रह जाते हैं। नशा जरूर उनके लिए हर गली, हर चौराहे पर जितनी आसानी से हासिल है, उतना ही मुश्किल है उसकी लत से बच पाना।
- सरकार की ऐसी एक भी योजना नहीं है जो स्कूल ड्रॉपआउट कहे जाने वाले इन बच्चों को बालिग होकर मजदूरी या नौकरी पाने तक किसी भी तरह की कोई ट्रेनिंग दे सके, उनका उत्पादक योगदान देश-प्रदेश या समाज के लिए ले सके, और उनका वर्तमान जुर्म के भंवर में फंसने से, और भविष्य उसमें डूबने से रोक सके।
- हमने समाज में इस पूरी पीढ़ी को अनदेखा करने को सबसे आसान मान लिया है, क्योंकि इसके अस्तित्व को देखने से सरकार और समाज पर एक बड़ी जिम्मेदारी आ जाएगी, और सरकार तो आज जुर्म में पकड़ाए नाबालिग बच्चों के फेंके गए मिर्च पाउडर को आंखों में झेलकर ही तकलीफ में है। जो समाज अपनी अगली पीढ़ी को इस लापरवाही, और गैर जिम्मेदारी से अधिक गंभीर, और शायद पेशेवर भी, मुजरिम बन जाने के लिए खुला छोड़कर चैन की नींद सोता है, उसकी नींद आगे हराम होना तय है। इन बच्चों के परिवार दो वक्त के खाने जितना कमाने के घेरे में कोल्हू के बैल की तरह जुते रहते हैं, वे अपने-आप इन बच्चों के लिए शायद कुछ भी नहीं कर सकते। ऐसे बच्चों को अब अवैध शराब बेचने, गांजे की तस्करी और उसे बेचने, नशीली दवा की शीशियों और गोलियों को बेचने में भी लगा दिया गया है। जाहिर है कि बेचते-बेचते ये बच्चे उसका इस्तेमाल भी करने लगते हैं। मैदानों और बाग-बगीचों, तालाबों के किनारे या किसी भी सुनसान जगह पर ऐसे बच्चों को नशा करते, जुआ खेलते, और शायद लड़कियों से कोई जुर्म करने की तैयारी करते देखा जा सकता है।
- वह समाज बहुत ही गैर-जिम्मेदार होता है जो अगली पीढ़ी के एक हिस्से को, जो सबसे गरीब, लगभग बिना पढ़ा-लिखा, और बुरी आदतों का शिकार है, उसे अपने हाल पर छोड़ देता है। और अपने खाते-पीते घर के बच्चों की बेहतरी, उनके विकास को अपनी पूरी जिम्मेदारी, और समाज की पूरी जरूरत मान लेता है। किसी भी समाज में जहां नाबालिगों के हाथ में चाकू आ जाते हैं, वहां पैसे वालों की पसलियां भी सुरक्षित नहीं रह जाती है।
- सरकार की नजरों में आठ-दस बरस की उम्र से लेकर 18 पार कर जाने तक के बच्चे हवा की तरह ओझल बने रहते हैं, क्योंकि सरकार की कोई भी मौजूदा योजनाएं इनके हिसाब से बनी नहीं हैं। ये किसी एक विधानसभा क्षेत्र में बसे हुए, किसी एक बस्ती के नुमाइंदे नहीं हैं कि जिनका संगठित तरीके से कोई उपयोग हो सके। ये बिखरे हुए हैं, बेचेहरा-बेनाम हैं, बेघर तो हैं ही, बिना मतदाता परिचय पत्र के भी हैं। ये दुधारू होने के पहले सूख चुकी गाय की तरह हैं जिनके पास नशे की लत और छुरी तो है, वोटर कार्ड नहीं है। ऐसे निरुपयोगी प्राणियों को देखना सार्वजनिक जगहों पर बिखरे हुए कचरे को देखने जैसा है, जो अवांछित है, और जिसे समाज और सरकार सभी कचरे की गाड़ी में डालकर शहर से परे ट्रैचिंग ग्राउंड में फेंक देना चाहते हैं। कोई समाज और सरकार से पूछे तो ये बच्चे कचरे से भी गए बीते हैं, क्योंकि कचरा तो चाकू चलाता नहीं।
- छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर के रेलवे स्टेशन पर काम करने वाले एक समाजसेवी संगठन की महिला कार्यकर्ताओं ने कई बरस पहले प्लेटफार्म पर रहने और ट्रेन पर चलने वाले बच्चों का नशा छुड़ाने की कोशिश की। इस बीच पता लगा कि स्टेशन की पुलिस इन बच्चों को वहां तभी रात गुजारने देती थी जब वे उस इलाके में हर किस्म के जुर्म का धंधा चलाने वाली महिला डॉन के लिए काम करने को तैयार होते थे। जो बच्चे इस गिरोह में शामिल होकर जुर्म करने तैयार नहीं होते थे उनको पुलिस भी स्टेशन के इलाके में रात नहीं गुजारने देती थी।
- समाज में फैसले लेने वाले लोगों की पसलियां फौलादी कारों के भीतर चलती हैं, फाटक वाले घरों के भीतर रहती हैं, इसलिए उन्हें बेघर या आवारा नाबालिग छुरों का खौफ नहीं है। लेकिन दुनिया का इतिहास बताता है कि जहां नाबालिगों के मुजरिम बनने को अनदेखा किया जाता है वहां बालिग मुजरिमों की फसल लहलहाती है। और समाज के डीएनए में जुर्म का हिस्सा बढ़ते जाता है।
- किसी भी जनकल्याणकारी सरकार को इस मुद्दे पर समाजसेवी संगठनों को साथ लेकर कोशिश करनी चाहिए, वरना आबादी का यह कुछ फीसदी हिस्सा अनपढ़, आवारा, बेघर, बेहुनर, बेहसरत, और खतरा बनकर रह जाएगा।
- क्या सोचते हैं आप?
- – तृप्ति सोनी
